विकासवाद की समस्‍याएं



विकिपीडिया के अनुसार विकासवाद (Evolutionary thought) की धारणा है कि समय के साथ जीवों में क्रमिक-परिवर्तन होते हैं।
जीवों में वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार या अनुकूल कार्य करने के लिए क्रमिक परिवर्तन तथा इसके फलस्वरूप नई जाति के जीवों की उत्पत्ति को क्रम-विकास या उद्विकास (Evolution) कहते हैं। क्रम-विकास एक मन्द एवं गतिशील प्रक्रिया है जिसके फलस्वरूप आदि युग के सरल रचना वाले जीवों से अधिक विकसित जटिल रचना वाले नये जीवों की उत्पत्ति होती है। जीव विज्ञान में क्रम-विकास किसी जीव की आबादी की एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के दौरान जीन में आया परिवर्तन है। हालांकि किसी एक पीढ़ी में आये यह परिवर्तन बहुत छोटे होते हैं लेकिन हर गुजरती पीढ़ी के साथ यह परिवर्तन संचित हो सकते हैं और समय के साथ उस जीव की आबादी में काफी परिवर्तन ला सकते हैं। यह प्रक्रिया नई प्रजातियों के उद्भव में परिणित हो सकती है। दरअसल, विभिन्न प्रजातियों के बीच समानता इस बात का द्योतक है कि सभी ज्ञात प्रजातियाँ एक ही आम पूर्वज (या पुश्तैनी जीन पूल) की वंशज हैं और क्रमिक विकास की प्रक्रिया ने इन्हें विभिन्न प्रजातियों मे विकसित किया है।

अंग्रेजी लेखक जी.के. चेसटरटन ने एक बार कहा कि जादू और विकासवाद में फर्क केवल समय की अवधी का है। उदाहरण के लिए, यदी कोई आकर आपसे कहे की संगमरमर के किसी खान में जोर का विस्‍फोट हुआ और वहा पर ताजमहल बन गया तो या तो आप उस व्‍यक्ति को झुठा कहेंगे या फिर समझेंगे की यह एक मजाक है। विज्ञान की अलौकिक-विरोधी प्रवृत्ति को जो स्‍वीकार नही करते वे तो इस बात को मानेंगे कि यदी कुछ ऐसा सचमुच हुआ है तो ये किसी का जादूई करिश्‍मा या चमतकार ही होगा।

विकासवाद का मानना है कि यह ताजमहल से भी जटिल संसार कई वर्षों में ब्रहमाण्‍ड में विस्‍फोटों और मिश्रनों का संयोग हैं। मानों सैकडों बंदर कम्‍प्‍यूटर पर अंधाधुंद हाथ चलाते चलाते कई शताब्‍दियों के पश्‍चात अचानक कालीदास के शकुंतला को लिख डाला। फर्क यही होता कि कालीदास को मालूम था कि वह क्‍या लिख रहा है परन्‍तु बनदरों को मालूम नही कि उनसे क्‍या रच गया। विकासवाद अंधा जगतीय संयोग पर आधारित है। इसलिए सार्त्र, कैमु, और नित्‍सचे जैसे लेखकों ने विकासवाद के संसार में मानव अनुभव को अर्थहीन और अनर्थक कहा है। नैतिक मूल्‍य,सत्‍य,न्‍याय ये सब बेअर्थ है। जगत का कोई बुद्धिमान स्रोत नही है तो जगत में बुद्धि का जि़कर एक मजाक ही है।

विकासवाद की समस्‍याएं कई है, उनमें से निम्‍न कुछ है।


1. विकासवाद तर्क के जमीन को उसके पांव तले से हटा कर सत्‍य के अस्तित्‍व को नकारता है। परन्‍तु सत्‍य के अस्तित्‍व को नकार कर वह सत्‍य पर दावे का अधिकार को खो देता है।
यदी संसार अकास्मित मिश्रनों का संयोग है,तो सत्‍य निरपेक्ष नही हो सकता क्‍योंकि जगत की क्रियाएं तो परिवर्तनशील है परन्‍तु सत्‍य परिवर्तनशील नही हो सकता। सत्‍य रविवार, सोमवार, और हर एक दिन एक समान ही है। परन्‍तु विकासवाद के अनुसार मानव मस्तिष्‍क अनुओं के अकास्मित मिश्रनों का संयोग है। इसलिए सत्‍य का अस्तित्‍व निराधार हो जाता है। लेकिन यदी सत्‍य का अस्तित्‍व नही है तो विकासवादी कैसे कह सकता है कि विकासवाद सत्‍य है? 

2. ऊष्मा-गतिकी के दुसरे नियम के अनुसार जगत में ह्रास ही स्‍वाभाविक है। यदी एक झोपडी को ऐसा ही छोड़ दिया जाए तो कुछ वर्ष पश्‍चात वह अपने आप कोई महल नही बन जाएगा। उसके विपरीत वह खंडहर बन जाएगा। पुन: क्षय से उसे वापस लाने के लिये बुद्धि और शक्ति की आवश्‍यक्‍ता है। परन्‍तु विकासवाद इस नियम के विरुद्ध में कहता है कि जगत में ह्रास नही परन्‍तु विकास स्‍वाभाविक है।
3. खोई कडियों की समस्‍या। यदी मछली से मैंडक का विकास हुआ और वानर से मनुष्‍य आए तों इन के मध्‍य के कडी कहा गए? वानर-मानव कही दिखते क्‍यों नही? उनका कही कोई जीवावशेष कही नही मिले। नियान्‍डरथल, जावा,इत्‍यादी सब मनुष्‍य जाती के ही अवशेष साबित हुए। पिल्‍टडाउन तो धोखा साबित हुआ।
4. विकासवाद का कोई यंत्र नही पता। विज्ञान अवलोकन और प्रायोगिक प्रमाण पर आधारित है। लेकिन न तो विकासवाद की कोई उपमा देखी जा सकती है न प्रयोग के द्धारा इसे साबित किया जा सकता है। यदी विकास का यंत्र पता होता तो न जाने कितने वानरों को मनुष्‍य... बनादिया जाता। यदी विकासवादी पुस्‍तकों को पढ़ें तो साफ लिखा जाता है कि जिस काल में विकास क्रम हुए, उस काल के वातावरण को हम नही जानतें। लेकिन यह तो अनुमान और कल्‍पना का एक बहाना ही है, विज्ञान नही।
और फिर, हमें यह तो मालूम ही है कि बिना जीवन या प्राण के डी.एन.ए. व्‍यर्थ है। अर्थात बिना जीवन के पदार्थ कें जटिल मिश्रनों से कुछ होने वाला नही। इसके अलावा बिना जीवन का डी.एन.ए का निर्माण ही असम्‍भव है।

© डॉ. डॉमेनिक मर्बनियांग


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