परमेश्वर का वचन हमें सिखाता है कि हर कलीसिया परमेश्वर का मंदिर है (1कुरु.3:16) और हर एक विश्वासी परमेश्वर के सम्मुख में एक याजक है (1पत.2:9)। यीशु मसीह ने सिखाया कि परमेश्वर की उपासना और सेवा ही हमारा जीवन का सर्वोच्च कर्तव्य है (मत्ति 4:10)।
1. सेवक का मन -परमेश्वर की सेवा में एक सेवक का मन रखना प्राथमिक योग्यता है। जिस प्रकार प्रभु यीशु मसीह का एक सेवक का स्वभाव है वैसा ही हमारा भी स्वभाव होना चाहिए।
जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो। जिस ने परमेश्वर के स्वरूप में होकर भी परमेश्वर के तुल्य होने को अपने वश में रखने की वस्तु न समझा। बरन अपने आप को ऐसा शून्य कर दिया, और दास का स्वरूप धारण किया, और मनुष्य की समानता में हो गया। और मनुष्य के रूप में प्रगट होकर अपने आप को दीन किया, और यहां तक आज्ञाकारी रहा, कि मृत्यु, हां, क्रूस की मृत्यु भी सह ली। (फिलि 2:5-8)
2. आज्ञाकारिता और विश्वासयोग्यता - फिर आवश्यक है कि प्रभु के सेवक होने के नाते एक विश्वासी सम्पूर्ण रीती से आज्ञाकारी और विश्वासयोग्य होना चाहिए (मत्ति 24:45; 1कुरु 4:2)। इसके साथ साथ यह भी अति आवश्यक है कि विश्वासी अपने जीवन में पवित्रता का अनुकरण करना चाहिए।
3.पवित्रता -क्योंकि परमेश्वर ने हमें अशुद्ध होने के लिये नहीं, परन्तु पवित्र होने के लिये बुलाया है (1थिस्स 4:7)।
“बड़े घर में न केवल सोने- चान्दी ही के, पर काठ और मिट्टी के बरतन भी होते हैं; कोई कोई आदर, और कोई कोई अनादर के लिये। यदि कोई अपने आप को इन से शुद्ध करेगा, तो वह आदर का बरतन, और पवित्र ठहरेगा; और स्वामी के काम आएगा, और हर भले काम के लिये तैयार होगा। (2तिम.2:20,21)
4. अनुशासन -अनुशासन से तात्पर्य वह जीवन जिसपर परमेश्वर का वचन शासन करता हो और वह आलस और अभिलाषाओं का गुलाम न हो। वह नियमबद्ध हो और सेवा कार्य में उत्कृष्टता को ही अपना लक्ष्य बना लिया हो। जब कोई योद्धा लड़ाई पर जाता है, तो इसलिये कि अपने भरती करनेवाले को प्रसन्न करे, अपने आप को संसार के कामों में नहीं फंसाता। फिर अखाड़े में लडनेवाला यदि विधि के अनुसार न लड़े तो मुकुट नहीं पाता। (2तिम 2:4)
सेवा के दो पहलू
परमेश्वर की सेवा के दो पहलू है
1. उपासना: यह परमेश्वर के सन्मुख प्रार्थना, आराधना, और उपवास सहित किया जाता है।
1. उपासना: यह परमेश्वर के सन्मुख प्रार्थना, आराधना, और उपवास सहित किया जाता है।
“वे उपवास सहित प्रभु की उपासना कर रहे थे” (प्रेरित 13:2)
2. सेवा कार्य: यह परमेश्वर के आज्ञानुसार लोगों के बीच में वचन की शिक्षा, सुसमाचार का प्रचार, कलीसिया की व्सवस्था का देखरेख करना, इत्यादी का कार्य है।
कलीसिया में सेवा
कलीसिया में सेवा का विधान यह है कि सब कुछ क्रमानुसार हो। और सब कुछ प्रभु यीशु मसीह के द्वारा नियुक्त अगुवों की आधीनता में हो जिन्हें प्रभु यीशु मसीह ने कलीसिया में उन्नति और सेवा के लिए नियुक्त किया है।
“अपने अगुवों की मानो; और उनके अधीन रहो, क्योंकि वे उन की नाई तुम्हारे प्राणों के लिये जागते रहते, जिन्हें लेखा देना पड़ेगा, कि वे यह काम आनन्द से करें, न कि ठंडी सांस ले लेकर, क्योंकि इस दशा में तुम्हें कुछ लाभ नहीं।” (इब्रा 13: 17)
प्रभु यीशु मसीह ने विश्वक रूप से कलीसिया द्वारा सेवा हेतु 5 सेवक पदों को निर्धारित किया है जो सामन्यत: पूर्ण कालीन है। ये सेवकाई पदवियां विशेष अधिकार युक्त है जो इनकी बुलाहट में निहित है। इनकी नियुक्ति मनुष्यों से नही परन्तु परमेश्वर से है।
“और उस ने कितनों को भविष्यद्वकता नियुक्त करके, और कितनों को सुसमाचार सुनानेवाले नियुक्त करके, और कितनों को रखवाले और उपदेशक नियुक्त करके दे दिया। जिस से पवित्र लोग सिद्ध जो जाएं, और सेवा का काम किया जाए, और मसीह की देह उन्नति पाए। जब तक कि हम सब के सब विश्वास, और परमेश्वर के पुत्र की पहिचान में एक न हो जाएं, और एक सिद्ध मनुष्य न बन जाएं और मसीह के पूरे डील डौल तक न बढ़ जाएं। ताकि हम आगे को बालक न रहें, जो मनुष्यों की ठग- विद्या और चतुराई से उन के भ्रम की युक्तियों की, और उपदेश की, हर एक बयार से उछाले, और इधर- उधर घुमाए जाते हों।” (इफि 4:11-14)
इन 5 सेवक पदों को अपने हाथ के 5 उंगलियों के सहारे समझ सकते है।
प्रेरित - अंगूठे के समान है जो सभी उंगलियों को छू सकता है। अर्थात उसका अधिकार और सेवा का सम्बन्ध सभी सेवकाईयों से है। प्रेरित कलीसियाओं पर अधिकार रखते है और मसीही शिक्षा में कलीसिया का निर्माण करते है। प्रेरित के पास कलीसिया को अनुशासित करने का अधिकार है। (2कुरु 13:10) और उनके पास प्रेरिताई के चिन्ह भी पवित्रात्मा से दिये हुए होते है (2कुरु 12:12)।
भविष्यद्वकता -तर्जनी के समान है जो बातों को प्रगट करता है और परमेश्वर के संदेश को कलीसियाओं तक पहुँचाता है।
सुसमाचार प्रचारक - बीच वाली उंगली के समान है जो सबसे लम्बा है और इस कारण सब से दूर भी जाता है। प्रचारक यीशु मसीह के सुसमाचार को जगत के छोर छोर तक पहुँचाता है।
रखवाला अर्थात पास्टर - अंगूठी की उंगली के समान है जिसका रिश्ता स्थानीय कलीसिया से है। वह स्थानीय कलीसिया का अगुवा है, जो कलीसिया की सुधि रखता है और वचन की शिक्षा और सेवा के कार्य में उनकी अगुवाई करता है।
उपदेशक या शिक्षक - वचन की शिक्षा देते है।
इनके अलावा स्थानीय कलीसिया में ही कई सेवकाई के क्षेत्र होते है जिसमें विश्वासयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति कलीसिया के अगुवे प्रार्थना पूर्वक करते है। उदाहरण के लिए हम देखते है प्रेरित 6 में जब एक समस्या उठी तो प्रेरितों ने कुछ सेवकों के चयन और नियुक्ति के द्वारा उसका निवारण कर दिया।
हमें अपने अपने तोडों (वरदानों) को समझकर जैसे जैसे प्रभु अवसर देता है वैसे वैसे पूरी आधीनता और नम्रता के साथ प्रभु की सेवा में लगे रहना चाहिए।
परमेश्वर ने कलीसिया में हर एक को सेवा हेतु अलग अलग वरदान दिये है, और हर एक के लिये स्थान और सेवा दोनो निर्धारित किया है। जिस प्रकार शरीर के अलग अलग अंगों का अपना स्थान और कार्य होता है, वैसे ही हर एक विश्वासी का भी कलीसिया में जो प्रभु यीशु मसीह का देह है अपना अपना स्थान और सेवकाई है। लेकिन सब सेवाओं का नियंत्रण सर से अर्थात प्रभु यीशु मसीह से ही है। (1कुरु 12:1 2-30)
क्योंकि जैसे हमारी एक देह में बहुत से अंग हैं, और सब अंगों का एक ही सा काम नहीं। वैसा ही हम जो बहुत हैं, मसीह में एक देह होकर आपस में एक दूसरे के अंग हैं। और जब कि उस अनुग्रह के अनुसार जो हमें दिया गया है, हमें भिन्न भिन्न बरदान मिले हैं, तो जिस को भविष्यद्वाणी का दान मिला हो, वह विश्वास के परिमाण के अनुसार भविष्यद्वाणी करे। यदि सेवा करने का दान मिला हो, तो सेवा में लगा रहे, यदि कोई सिखानेवाला हो, तो सिखाने में लगा रहे। जो उपदेशक हो, वह उपदेश देने में लगा रहे; दान देनेवाला उदारता से दे, जो अगुआई करे, वह उत्साह से करे, जो दया करे, वह हर्ष से करे। (रोम 12:4-8)
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